Lessons and granular writing given by Namvar Singh's beloved Hindi teacher

नामवर सिंह के प्रिय हिन्दी शिक्षक की दी हुई सीख और दानेदार लेखन/Lessons and granular writing given by Namvar Singh’s beloved Hindi teacher

प्रकाश डालिए

आलोचक एवं सम्पादक Namvar Singh का जन्म 26 जुलाई 1926 को चन्दौली में हुआ था।
19 फरवरी 2019 को नामवर सिंह का 92 साल की उम्र में दिल्ली में निधन हो गया।

जानिए क्या बताया इंटरव्यू में नामवर जी ने

इंटरव्यू में नामवर जी ने बताया कि आठवीं तक चन्दौली के कमालपुर में पढ़ने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह काशी स्थित यूपी कॉलेज के स्कूल में पढ़ने चले गए। यूपी कॉलेज में उन्हें हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत तीनों के बहुत योग्य टीचर मिले जिन्होंने उनमें गहरी साहित्यिक अभिरूचि पैदा कर दी। उन टीचरों की सीख का प्रतिफल नामवर सिंह के रूप में दुनिया के सामने आया। यह पूरा प्रसंग प्रसार भारती के यूट्यूब चैनल पर मौजूद ‘नामवर सिंह (Namvar Singh) से बातचीत- भाग 5’ में है, जिन्हें रुचि हो वह इसे देख-सुन सकते हैं।

समालोचक होने के कारण Namvar Singh के लिखन-कहन से अकादमिक लोगों का ज्यादा वास्ता रहता है लेकिन इस इंटरव्यू में उनकी कही एक बात, मेरे ख्याल से आज हर लेखक के काम की है। नामवर जी ने इस बातचीत में बताया कि यूपी कॉलेज में उनके हिन्दी टीचर रहे मार्कण्डेय सिंह वाग्जाल के घनघोर विरोधी थे जिसका उनपर गहरा असर हुआ। मार्कण्डेय सिंह ने ‘वाग्जाल’ का उदाहरण देते हुए कक्षा में बच्चों से कहा था कि “नन्ददुलारे वाजपेयी ने परीक्षा में छह लाइन का सवाल बनाया था, जिसे काटकर मैंने एक लाइन का कर दिया!”नन्ददुलारे वाजपेयी हिन्दी के मेधावी समालोचकों में शुमार किए जाते हैं। नामवर जी का बयान सुनकर लगा कि एक मेधावी समलोचक की भाषा का संस्कार करने का आत्मविश्वास रखने वाले ‘स्कूल टीचर’ ही नामवर जैसे भाषा-मर्मज्ञ तैयार कर सकते हैं।

एक लाइन की बात को छह लाइन में लिखने की बीमारी से आज पूरी हिन्दी ग्रस्त है

एक लाइन की बात को छह लाइन में लिखने की बीमारी से आज पूरी हिन्दी ग्रस्त है। कहना न होगा आज हिन्दी लेखन की हालत मूँगफली की उस प्रजाति की तरह हो गयी है जिसमें दाना बहुत कम, छिलका बहुत ज्यादा निकल रहा है। अब तो छिलका-छिलका जुटाकर लोग पूरा उपन्यास लिख दे रहे हैं और दूसरों से कह रहे हैं खाने का शऊर हो तो छिलका भी अच्छा लगता है! ऐसे तर्कों पर आप आपत्ति भी नहीं कर सकते क्योंकि बुनियादी तौर पर उनकी बात सच है।

खाने का शऊर हो तो भूसा भी अच्छा लगता है, मगर ऐसा शऊर गाय-बैल ही विकसित कर पाते हैं, इंसान नहीं।’वाग्जाल’ और ‘छह लाइन की एक लाइन’ वाली बात मुझे इसलिए चुभ गयी क्योंकि यह जरा सी बात समझने में मेरे कई साल खर्च हो गए। नामवर जी से थोड़ी ईर्ष्या हुई कि वह इतने भाग्यशाली थे कि उनके स्कूल टीचर ने नौवीं-दसवीं में ही उन जैसे बालकों के मन से यह लेखकीय खोट दूर कर दी। विश्वनाथ त्रिपाठी ने नामवर जी की तारीफ करते हुए लिखा है, कहा है कि हिन्दी समाज में नामवर जी विरले लेखक हैं जिनके ‘कम लिखने को लेकर’ लोग शिकायत करते हैं, वरना आमतौर पर हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में ‘बहुत लिख लिया, अब पढ़ भी लो’ की ही टेर लगाते मिलते हैं।

हिन्दी के कवि-कथाकार क्या लिख रहे हैं, इसकी मैं ज्यादा चिन्ता नहीं करता। समकालीन कवियों-कथाकारों को स्वेच्छा से पढ़ना भी लगभग बन्द कर दिया है। मैं वैचारिक गद्य लिखने वालों की चिन्ता करता हूँ क्योंकि इसी गली में मेरी भी गुमटी है। ऐसा लगता है कि आज इस गली की सबसे बड़ी मुश्किल वाग्जाल है। नामवर जी को उनके सुयोग्य अध्यापकों ने बचपन में ही इस गली से निकाल लिया जिसकी वजह से वह अनुकरणीय सुगठित पुस्तकें, निबंध और भाषण हिन्दी को दे गए। हम जैसे लोग अपने ही तैयार किए हुए भूसे में दाना खोजते रह जाते हैं।

नामवर जी के जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए, हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि काल के प्रवाह में वही लेखन टिकेगा जिसमें दयानत हो, जो दानेदार हो। भूसा बढ़ाकर कोई नामवर होने से रहा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *